मुंडा विद्रोह के अग्रदूत और नेता बिरसा मुंडा जी का जन्म 15 नवंबर 1875 को रांची जिले के उलिहातु गांव में हुआ था। वर्तमान में रांची और सिंहभूमि के आदिवासी बिरसा जी को “बिरसा भगवान” के रूप में पूजते हैं। 19वीं सदी में बिरसा जी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास की एक बड़ी कड़ी साबित हुए। बिरसा के पिता सुगना मुंडा और माता करमी हातू थीं। उनका जीवन कृषि पर निर्भर था।
जब बिरसा जी बड़े हुए, तब छोटानागपुर अंग्रेजों के अधीन था। बिरसा जी बचपन से ही विदेशियों के अत्याचार और शोषण तथा उनके द्वारा लगाए गए कर प्रणाली की लाचारी को देख रहे थे। आदिवासी का जीवन जंगलों और प्रकृति पर निर्भर करता है। अंग्रेजों ने कानून बनाकर आदिवासियों को जंगल पर निर्भर सुविधाएं जैसे आरक्षित वन बनाना, लकड़ी और पशुओं के चरने पर प्रतिबंध लगा दिया। 1867 में कृषि पर प्रतिबंध लगा दिया गया। इन सभी कारणों ने मुंडा विद्रोह को जन्म दिया।
1894 में बिरसा जी ने कर माफी के लिए अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का नेतृत्व किया। जिसके बाद उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और दो साल के लिए जेल भेज दिया गया। लेकिन बिरसा जी और उनके शिष्यों ने अकाल से पीड़ित लोगों की मदद करने की ठानी। इस इलाके के लोग उन्हें 'धरती बाबा' कहते थे। उनके प्रभाव से पूरे इलाके के मुंडा संगठित हो गए।
1898 में मुंडाओं की तांगा नदी के तट पर अंग्रेजों के साथ झड़प हुई, जिसमें शुरुआत में तो ब्रिटिश सेना की हार हुई लेकिन इसके परिणामस्वरूप क्षेत्र के कई आदिवासी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया।
जनवरी 1900 में डोमबाड़ी पहाड़ी पर संघर्ष हुआ जिसमें महिलाएं और बच्चे मारे गए। बिरसा जी उस स्थान पर अपनी जनसभा को संबोधित कर रहे थे। बाद में 3 फरवरी 1900 को बिरसा जी और उनके शिष्यों को गिरफ्तार कर लिया गया।
बिरसा जी ने न केवल राजनीतिक आजादी के लिए बल्कि आदिवासियों के सामाजिक और आर्थिक अधिकारों के लिए भी अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी। उन्होंने यह सब अपने छोटे से जीवन में ही कर दिखाया, बिरसा जी ने 9 जून 1900 को रांची जेल में 25 साल की छोटी सी उम्र में अपने प्राण त्याग दिए। आज भी बिहार, उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों में बिरसा मुंडा जी को भगवान की तरह पूजा जाता है।